अविनाश दुबे, रायपुर | देश मना रहा है भारत की आज़ादी के 75 साल का उत्सव, आजादी का अमृत महोत्सव, ये उत्सव हमारे लिए एक अवसर है, भारत के गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों को याद करने का और शायद उन गलतियों को दुरुस्त करने का जो हम अब तक करते रहे. इस बार हमने 75 वां स्वतंत्रता दिवस मनाया तो दो बड़ी घटनाएं घटीं – एक, भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) की तीन सदस्यीय समिति ने स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों पर एक किताब से मोपला विद्रोह के नेताओं के नाम हटाने की अनुशंसा की, तो साथ ही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी ककोरी की बेहद अहम् घटना का नाम ‘काकोरी कांड’ से बदलकर ‘काकोरी ट्रेन एक्शन डे’ कर दिया.
आज बात काकोरी की, क्या काकोरी का पूरा सच जानते हैं आप ? और आखिर योगी सरकार ने काकोरी काण्ड का नाम ‘काकोरी ट्रेन एक्शन डे’ क्यों किया? सब कुछ बताएंगे…
लेकिन उससे पहले आपको ये बता दें कि अब से आप और हम इस इतिहास को काकोरी काण्ड नहीं कहेंगे इसे हम काकोरी ट्रेन एक्शन डे कहेंगे, क्यूंकि काण्ड हम किसी अप्रिय या अशुभ घटना को कहते हैं, काकोरी में जो कुछ हुआ उसे अंग्रेजी हुकूमत ने काण्ड कहा, पर अब हम आज़ाद हैं और आज़ाद भारत के लिए काकोरी में जो कुछ हुआ वो तो स्वतंत्रता की देवी को आराधना है वो भारत मां के वीर सपूतों के शौर्य की गाथा है, उनके बलिदानों की अमर कहानी है, वो कहानी जिसने बच्चे बच्चे के मन में आज़ादी की अलख जगा दी.
9 अगस्त 1925 भारत के स्वतंत्रता संग्राम की वो अमर तारीख है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता.
सहारनपुर से चली ट्रेन जब रात के अंधेरे में लखनऊ से 19 किलोमीटर पहले काकोरी पहुंची तो ट्रेन में बैठे रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और रोशन सिंह ने ज़ंजीर खींच कर ट्रेन रोक दी और बाकी क्रांतिकारी जो घात लगाये बैठे थे उन सबने धावा बोल दिया और इस ट्रेन लूट ली गयी.
काकोरी के हीरो
स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल ने फांसी के फंदे को चूमने से पहले इस गीत को गाकर अमर कर दिया. सरफरोशी की तम्म्मना अब हमारे दिल में है देखना है जोर कितना बाज़ुए कातिल में है. अंग्रेजी हुकूमत इस गीत से इतना डर गयी थी कि उसने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, इस गीत और काकोरी ट्रेन एक्शन डे के नायक रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां को कौन नहीं जानता. लेकिन इसी काकोरी ट्रेन एक्शन डे के कुछ नायक और भी हैं जिन्हें देश, खासकर देश की युवा पीढ़ी जानती भी नहीं. पर जिन्हें जानना भुत ज़रूरी है, ऐसे दो नायक हैं राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और रोशन सिंह जो देश की खातिर हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गए और साथ ही शचीन्द्रनाथ सान्याल जिन्हें कालेपानी की सजा सुनाई गई.
इन नायकों के बारे में हम जानेंगे पर उससे पहले हमें ये जानना ज़रूरी है कि क्रांतिकारियों को काकोरी में ट्रेन लूटने की ज़रूरत क्यों पड़ी l
दरअसल इसकी पृष्ठभूमि में 4 फरवरी 1922 को हुआ चौरी चौरा काण्ड है, जिससे दुखी होकर गांधी जी ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ चल रहे राष्ट्रव्यापी असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया था l प्रसार भारती आर्काइव्स पर आप स्वराजनामा कार्यक्रम देखेंगे तो वहां आपको चौरी चौरा के साथ स्वतंत्रता संग्राम से जुडीं कई घटनाओं को विस्तार से जान पाएंगे.
गांधी जी ने हिंसा से व्यथित होकर असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया लेकिन युवाओं को गांधी जी का ये फैसला बिलकुल नहीं भाया और उन्होंने अपना अलग रास्ता चुन लिया, क्रांति का रास्ता. काकोरी ट्रेन एक्शन डे के नायकों के कई साथियों में से एक साथी थे रामकृष्ण खत्री जी, जो बताते हैं कि कैसे गांधी जी से नाराज़ युवाओं ने अपना अलग रास्ता बनाया तो 1923 में क्रांतिकारियों का दल हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन तो बन गया लेकिन इस दल को चलाने के लिए, अंग्रेजों की गुलामी से आज़ादी पाने के लिए धन की ज़रूरत थी और तब रामप्रसाद बिस्मिल जी ने अंग्रेजों का खजाना लूटने के लिए ट्रेन लूटने की योजना बनाई
घर के भेदियों के कारण पकड़े गए युद्ध का मैदान हो या स्वतंत्रता संग्राम हो, दुश्मन भारत पर कभी भारी नहीं पड़ा, भारत कमज़ोर हुआ तो घर के भेदियों के कारण, काकोरी में ट्रेन लूटने वाले क्रांतिकारी भी शायद कभी पकडे नहीं जाते, लेकिन उन्हीं के दो साथी अंग्रेजो के मुखबिर बन गये और काकोरी के नायक पकड़े गए. लेकिन अंग्रेजी हूकुमत काकोरी ट्रेन एक्शन से और क्रांतिकारियों के हौसलों से इतनी डर गयी थी कि साढ़े 4 हजार रूपये की लूट में शामिल क्रांतिकारियों को सज़ा दिलाने के लिए अंग्रजी सरकार ने 10 लाख रूपये खर्च कर दिए.
काकोरी ट्रेन एक्शन डे के नायक रामप्रसाद ‘बिस्मिल’, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी दी गयी, शचीन्द्रनाथ सान्याल को कालेपानी की सजा सुनाई गई, मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा हुई, योगेशचंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल जी, गोविन्द चरणकर, राजकुमार सिंह, को 10-10 साल की सजा हुई. विष्णुशरण दुब्लि और सुरेशचंद्र भट्टाचार्य को सात और भूपेन्द्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी और प्रेमकिशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई. काकोरी के एक अन्य नायक रामकृष्ण खत्री जी को 10 साल की सज़ा हुई .
काकोरी ट्रेन एक्शन डे के नायक रामकृष्ण खत्री जी का एक वीडियो इंटरव्यू देखकर आपके रौंगटे खड़े हो जायेंगे, आज़ादी की कीमत आपको समझ आने लगेगी, भारत की मिटटी से आपको प्यार हो जायेगा और स्वतंत्रता सैंनियों के हौसले-हिम्मत और उनके बलिदान की आखों देखी गाथा सुनकर आप ये सोचने पर मजबूर हो जायेंगे कि आखिर किस मिटटी के बने हुए थे ये लोग जिनमें इस बात की होड़ लगी थी कि कैसे अंग्रेज उन्हें बड़ी से बड़ी या फिर मौत की सज़ा सुनाएं, ताकि वो भारत के लिए अपना जीवन बलिदान कर सकें
जब अग्रेजों की अदालत ने सज़ा सुनाई, तो मौत की सज़ा सुनकर इन क्रांतिकारियों के चेहरे खिल उठे, ऐसे थे आज़ादी के ये मतवाले –
17 दिसंबर 1927 को सबसे पहले गौंडा जेल में राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को फांसी दी गई, फांसी से पहले राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी वर्जिश करना नहीं भूले और जब जज ने पूछा कि ऐसा क्यों तो कहा मैं हिन्दू हूं, मैं फिर से जन्म लूंगा ताकि मातृभूमि को आज़ाद कराने का अधूरा काम पूरा कर सकूं. 19 दिसंबर, 1927 को पं. रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई और अशफाक उल्ला खां ने तो फांसी पर चढ़ने से पहले फांसी के फंदे को चूम लिया था. ठाकुर रोशन सिंह को इलाहाबाद में फांसी दी गई, उन्होंने भी मौत को हंसते-हंसते गले लगाया.
काकोरी ट्रेन एक्शन डे और इसके नायकों के बलिदान ने युवाओं में आज़ादी हासिल करने की ऐसी चिंगारी प्रज्ज्वलित कर दी कि देश के अलग अलग हिस्सों में कई क्रांतिकारी अंग्रेजों से लोहा लेने लगे, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह जब अपनी लेखनी से आज़ादी के लिए अलख जगाने में जुटे थे, तब उन्होंने काकोरी ट्रेन एक्शन डे को एक अहम मुददा बनाया, उन्होंने लाहौर से निकलने वाली पंजाबी पत्रिका ‘किरती’ में एक सीरीज शुरू की, जिसमें वो काकोरी कांड के नायकों का परिचय पंजाबी भाषा में लोगों से करवाते थे.
भगत सिंह काकोरी के नायकों से प्रभावित थे शायद इसीलिये फांसी पर चढ़ने से पहले शहीदे आज़म ने कहा था कि फांसी मेरे लिए सर्वोच्च पुरस्कार है और मैं इसे पाने जा रहा हूं. तो ऐसे थे आज़ादी के मतवाले.आज़ादी के अमृत महोत्सव में कृतज्ञय राष्ट्र ऐसे सभी वीरों को नमन कर रहा है. हम सभी प्राण लें कि बलिदान की इन गाथाओं को हम कभी भूलेंगे नहीं, और ये गाथाएं नई पीढ़ी तक पहुंचें इसलिए रूटतक ने इन्हें आपके लिए सहेजा है