अविनाश दुबे, रायपुर | मतदाताओं पर काहिली इस कदर छाती जा रही है मानो ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए, सबके दाता राम’ सरीखा अकर्मण्यता का मूल मंत्र यथार्थ सिद्ध हो रहा है. कौन काम करना चाहेगा ? बीते कुछ सालों में चुनाव से पहले मुफ्त बिजली, सस्ता घरेलू सिलिंडर, मुफ्त परिवहन, धान पर बोनस और मोबाइल, लैपटॉप बांटकर मतदाताओं को लुभाने की प्रवृति बढ़ी है. फिर कसमें वादे कभी बातें हुआ करती थी, आज येनकेन प्रकारेण तमाम वादे पूरे किये जा रहे हैं. श्रम की ताकत घट रही है, स्वाभिमान भी घट रहा है. मुफ्त की चीजों से विरोध में बोलने और खड़े होने का साहस शून्य होता जा रहा है. आज भले ही खुश हो रहे हों ,यक़ीनन मुफ्तखोरी रंग लाएगी, ना हैसियत रहेगी ना ही वजूद रहेगा. वोटरों को समझना होगा ‘उनका’ मुफ्त में देना एक गहरा षड्यंत्र है.
भले ही उन्हें लगता हो कि मुफ्त की चीजों से जिंदगी भर गई है लेकिन मुफ्त लेने के एवज में उनकी जिंदगी शनैः शनैः छीनी जा रही है. ऐसा कैसे हो रहा है? इसी पर बात कर लेते हैं. विशेष रूप से विकासशील देशों में राजनीतिक पार्टियां ऐसा कर रही हैं चूंकि गरीबी और असमानता अधिक है और निःशुल्क उत्पाद या सेवाएं देना या सब्सिडी देना फ़ौरी तौर पर गरीब और कमजोर तबकों को लुभाता है.
पूर्व प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की बात याद आती है कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते. सरकार जो भी फ्री देती है, सरकार को वहन करना पड़ता है जिसके लिए पैसे चाहिए. और पैसे कहाँ से आएंगे जब पहले से ही घाटा चला आ रहा है ? निश्चित ही और कर्ज लेना होगा या फिर करों में वृद्धि करनी होगी. कर बढ़ा नहीं सकते चूंकि तब तो वही बात होगी एक हाथ दिया दूसरे हाथ लिया क्योंकि प्रगतिशील कराधान भी एक सीमा तक ही हो सकता है.
तो एक ही उपाय बचता है, कर्ज लिया जाए. लेकिन कर्ज का दुश्चक्र किसी की आर्थिक सेहत ठीक करने वाला होगा, ऐसा ना कभी देखा ना ही सुना. और फिर हमारे समाज में तो उधार लेकर घी पीने की प्रवृत्ति को काफी घातक माना जाता रहा है. या फिर कल भले ही पाकिस्तान या श्रीलंका जैसे हालात हो जाएं, आज तो मजे से जी लें ‘यावाज्जजीवेत सुखं जीवेत, ऋण कृत्वा घृतं पीबेत’ सरीखा भोगवादी दर्शन अपनाकर।
लेकिन जन कल्याण का दावा करने वाली सरकारों को गैर जरूरतमंदों को भी मुफ्त बांटने की ऐसी लत लग गयी है कि उनको आर्थिक तंत्र की मजबूती की तनिक भी परवाह नहीं होती. या फिर सरकारें जानते समझते कर्ज पर कर्ज लेती चली जाती है. क्या खूब ग़ालिब ने फ़रमाया था, ‘कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां रंग लावेगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन !’
उधार लेकर घी पीने की आदत भले ही अच्छी नहीं हो, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि कोई भी वस्तु या सेवा मुफ्त में मिलने लगे तो इसे भला कौन छोड़ना चाहेगा ? हमारे देश में तो सरकारें चाहे केंद्र की हो या राज्यों की, कर्ज लेकर घी पीती ही नहीं, बल्कि जनता को पिलाती भी है. मुफ्त रेवड़ियां बांटकर अपनी चुनावी नैया पार लगाने का प्रयास करती है.
कल्याणकारी कार्यों का मतलब जरूरतमंदों को मदद पहुंचाना तो हो सकता है, लेकिन कर्ज में डूबे होने के बावजूद गैर जरूरतमंदों को मुफ्त बांटने की प्रवृत्ति को उचित कैसे ठहराया जा सकता है ? अभी कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले मुफ्त योजनाओं का पिटारा खुला था. अब राजस्थान, छत्तीसगढ़ , मध्यप्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में चुनाव होने हैं. चुनाव आचार संहिता लगने से पहले राज्य सरकारें मतदाताओं को लुभाने में कसर नहीं छोड़ रही है.
चिंताजनक सवाल यही है कि आखिर कर्ज में डूबे राज्य ये पैसा चुकाएंगे कहां से ? वर्ल्ड बैंक से लेकर रिज़र्व बैंक और हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट इस पर चिंता जता चुके हैं. गत वर्ष जुलाई में ही राजनीति में सब्सिडी कल्चर पर चिंता जाहिर करते हुए सीजेआई ने सुझाव दिया था कि वित्त आयोग उन राज्यों के धन के प्रवाह को विनयमित करने पर विचार करे जो सब्सिडी दे रहे हैं.
चीफ जस्टिस ने तो स्पष्ट कहा कि ‘समय के साथ हमारी राजनीति में गंभीर विकृतियां आ गई है. राजनीति में लोगों को सच बताने का साहस होना चाहिए. लेकिन कुछ राज्यों में हम मुद्दों को कालीन के नीचे धकेलने की प्रवृत्ति देखते हैं. यह तत्काल तो राजनीतिक रूप से लाभदायक लग सकता है. लेकिन आज की इन चुनौतियों का समाधान नहीं करना हमारे बच्चों और आने वाली पीढ़ियों पर बोझ डालने जैसा हैं.’
लेकिन परवाह किसे है ? यह प्रवृत्ति रुकने का नाम नहीं ले रही. हर तरफ मुफ्त योजनाओं का पिटारा खोला जा रहा है, ताकि चुनाव जीता जा सके. एक पहलू यह भी है कि साढ़े चार साल सत्ता में रहने के बावजूद सरकारों को जनता याद नहीं आई. ज्यादातर सरकारें अपने वजूद को बचाने के प्रयासों में जुटी रही. सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकारों की कमाई का सारा पैसा अगर वेतन भत्तों और मुफ्त की योजनाओं पर ही खर्च होगा, तो विकास के लिए पैसा कहां से आएगा ?
सीधी सी बात है फ्रीबीज कहें या मुफ्त की रेवड़ियां कहें या सब्सिडी कहें, सभी सरकारी खजाने पर बोझ डालती है और इसे स्थायी और समर्पित विकास योजनाओं के विपरीत ही देखा जाना चाहिए. निःशुल्क सेवाएं वादा करने की नीति अक्सर समयबद्ध होती है और वे तब तक ही स्थायी होती हैं जब तक विशिष्ट दल सत्ता में बना रहता है.
‘मुफ्तखोरी’ की राजनीति का एक और पहलू यह भी है कि अक्सर राजनीतिक दल इसे अपनी विफलताओं और गलतियों से ध्यान हटाने के लिए एक्सप्लॉइट करते हैं. दल, जो सरकार में है, वह अक्सर मुफ्त की सेवाओं की घोषणा करके अपनी छवि सुधारने की कोशिश करता है और दल, जो विपक्ष में है, वह इनका वादा करके सत्ता प्राप्त करना चाहता है. यानी प्रतिस्पर्धा चलती है कौन कितनी मुफ़्तख़ोरी करवा सकता है ?