रायपुर : भाजपा और कांग्रेस आदिवासियों के आरक्षण के मसले पर आमने सामने है। गुरुवार को कैबिनेट की बैठक में आरक्षण संशोधक विधेयर को मंजूरी दी गई जो विधानसभा के विशेष सत्र में पेश होगा। अब भाजपा इसे लेकर कांग्रेस से गारंटी चाह रही है।
भाजपा के पूर्व मंत्री, आदिवासी नेता केदार कश्यप ने कांग्रेस पर छत्तीसगढ़िया समाज के सभी वर्गों के साथ छल करने का आरोप लगाते कुछ सवाल पूछे हैं। उन्होंने पूछा है कि क्या विधानसभा के विशेष सत्र के तुरंत बाद आदिवासियों को नौकरी मिलने लगेगी ? क्या मेडिकल शिक्षा एमबीबीएस में इस वर्ष जनजाति वर्ग के 104 बच्चों का जो नुकसान हो रहा था, उन बच्चों को मेडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलाया जायेगा?
क्या रुकी हुई भर्ती प्रक्रिया 3 दिसंबर से शुरू हो जाएंगी? कश्यप ने कहा- केवल राजनीतिक छल कपट हो रहा है। जो लोग आदिवासी आरक्षण के खिलाफ पिटीशन लगाते हैं, कांग्रेस उन्हें पुरस्कृत करती है। सत्ता की मलाई खिलाती है। हाल ही में केपी खांडे को अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बनाया गया है, आरक्षण के मसले पर खांडे ने कोर्ट में याचिका लगाई थी।
शपथ पत्र में गारंटी दे कांग्रेस
केदार कश्यप ने यहां तक कहा कि- शपथ पत्र दे कर कांग्रेस को छत्तीसगढ़ की जनता को विश्वास दिलाना चाहिए कि अपने किसी चंगू-मंगू को उच्च न्यायालय में याचिका लगवाकर उस विधेयक को निरस्त नहीं करवाएंगे। कांग्रेस ने ओबीसी वर्ग के साथ भी विश्वासघात किया।
क्या है सरकार का पक्ष
गुरुवार को मंत्री रविंद्र चौबे ने कहा, “सरकार बार-बार यह कह रही है कि सरकार जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध है। वहीं सर्वोच्च न्यायालय ने भी सामान्य वर्ग के गरीबों को 10% तक(UP TO) आरक्षण देने को उचित बता चुकी है तो उसका भी पालन किया जाएगा।’ मंत्री ने कानूनी बाध्यताओं की वजह से विधानसभा में विधेयक पेश होने से पहले आरक्षण का अनुपात नहीं बताया। लेकिन सरकार के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि यह ST के लिए 32%, SC के लिए 13%, OBC के लिए 27% और सामान्य वर्ग के गरीबों-EWS के लिए 4% तय हुआ है।
एक्सपर्ट कह रहे हैं, विधेयक लाने से खतरा खत्म नहीं होगा
संविधानिक मामलों के विशेषज्ञ बी.के. मनीष का कहना है, बिलासपुर उच्च न्यायालय ने 19 सितम्बर के अपने फैसले के पैराग्राफ 81 में SC-ST को 12-32% आरक्षण को इस आधार पर अवैध कहा है कि जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण नहीं दिया जा सकता। यह भी कहा है कि मात्र प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता से, बिना किसी अन्य विशिष्ट परिस्थिति के 50% आरक्षण की सीमा नहीं लांघ सकते।
पैराग्राफ 84 में हाईकोर्ट ने कह दिया है कि सामान्य वर्ग की तुलना में नौकरी या शिक्षा की प्रतियोगिता में जगह हासिल न कर पाना वह विशिष्ट परिस्थिति नहीं है। इन दोनों टिप्पणियों में सरकार द्वारा SC-STका पीएससी, मेडिकल, इंजीनियरिंग, शासकीय सेवाओं में प्रदर्शन-मौजूदगी और प्रति व्यक्ति आय, परिवार प्रमुख का पेशा जैसे आंकड़ों को गैर-जरूरी और नाकाफी ठहरा दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने जनसंख्या आनुपातिक प्रतिनिधित्व के विरोध में यही बातें 1961 से लगातार कही हैं। कई बार बताया गया है कि बहिष्करण की मात्रा या प्रकृति जांचने और उसके अनुसार कल्याणकारी योजनाएं बनाने के बाद ही परिस्थितिनुसार आरक्षण दिया जाना चाहिए।
मनीष का कहना है, जब तक 19 सितंबर के फैसले की ये टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट हटा नहीं देता तब तक आरक्षण देने का रास्ता ही बंद है। विधायिका, न्यायालय के किसी फैसले को सिर्फ उसका आधार हटाकर ही बदल सकती है, दूसरे किसी तरह से नहीं। अगर सरकार विधेयक लाकर आरक्षण देती भी है तो अदालत उसे रोक देगा।
आरक्षण मामले में कब-कब क्या हुआ
छत्तीसगढ़ में सरकार ने 2012 आरक्षण के अनुपात में बदलाव किया था। इसमें अनुसूचित जनजाति वर्ग का आरक्षण 20 से बढ़ाकर 32% कर दिया गया। वहीं अनुसूचित जाति का आरक्षण 16% से घटाकर 12% किया गया। इसको गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी। बाद में कई और याचिकाएं दाखिल हुईं।
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने 19 सितंबर को इस पर फैसला सुनाते हुए राज्य के आरक्षण अधिनियमों की उस धारा को रद्द कर दिया, जिसमें आरक्षण का अनुपात बताया गया है। इसकी वजह से आरक्षण की व्यवस्था संकट में आ गई। भर्ती परीक्षाओं का परिणाम रोक दिया गया है। परीक्षाएं टाल दी गईं।
काउंसलिंग के लिए सरकार ने कामचलाऊ रोस्टर जारी कर 2012 से पहले की पुरानी व्यवस्था बहाल करने की कोशिश की। इस बीच आदिवासी समाज के पांच लोग उच्चतम न्यायालय पहुंचे। राज्य सरकार ने भी इस फैसले के खिलाफ अपील की है। एक अध्ययन दल भी तमिलनाडू और कर्नाटक की आरक्षण व्यवस्था का अध्ययन करने भेजा है। 10 नवम्बर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की अधिसूचना जारी कर दी।